२८ अगस्त, १९७१

 

 तो, कोई नयी बात?

 

      जी, कुछ नहीं, या हमेशा बह-की-वही ।

 

 वह क्या?

 

      मैं प्रतीक्षामें हूं ।

 

 ओहो! तुम प्रतीक्षामें हों - मैं भी (हंसी) ।

 

 ( मौन)

 


   ऐसा लगा मानों संसारके देखनेके सभी तरीके, एकके बाद एक : अत्यंत घृणित और अत्यंत अद्भुत तरीके - इस तरहसे, इस तरहसे, इस तरहसे ... (माताजी हाथको केलेडेस्कोप या बहुमूर्तिदर्शीकी तरह घुमाती हैं), और मानों सब-के-सब यह कहनेके लिये आये : यह लो, इस तरह देखा जा सकता है, इस तरह देखा जा सकता है, इस तरह... और 'सत्य'... 'सत्य' -- क्या है? 'सत्य' क्या है?... ये सब (फिर बहुमूर्तिदर्शीकी मुद्रा) और ''कुछ'' और जिसे मनुष्य नहीं जानता ।

 

   सबसे पहले, मुझे विश्वास है कि चीजोंको देखनेकी यह आवश्यकता, उनके बारेमें सोचनेकी आवश्यकता शुद्ध रूपसे मानवीय है और संक्रमणके साधन हैं । यह एक संक्रमणकाल है जो हमें भले लंबा, लंबा लगता है, परंतु वास्तवमें बहुत छोटा है ।

 

   हमारी चेतना मी 'चेतना' का -- एकमात्र 'चेतना', सत्य चेतनाका अनुकूलन है, वह और ही चीज है ।

 

   तो मेरे शरीरके लिये परिणाम यही है... (मैं जहांतक उसे शब्दोंमें रख सकती हू) : भगवान्से चिपके रहना । समझनेकी कोशिश न करना, जाननेकी कोशिश न करना -- सिर्फ होनेकी कोशिश करना... और चिपके रहना । और मै इसी तरह अपना समय बिताती हू ।

 

   ''प्रयास'' नहीं : इस तरह एक मिनट (जरा पीछे हटनेका संकेत), इस तरह काफी है, समयका कोई अर्थ ही नहीं रहता । बड़ी अजीब बात है, मैं जीवनकी सभी छोटी-मोटी गतियोंको साथ परीक्षण करती हू । हां, तो जब मै इस तरह चिपक जाती हू, जब मैं सोचना बंद कर देती हू, चेतना यूं होती है ( अंदर जानेका संकेत), तो सभी तत्काल प्रतीत होता है । समय नहीं होता । जव मै बाह्य चेतनामें होती हू (मै जिसे बाह्य कहती हू वह वह चेतना है जो सृष्टिको देखती है), उसमें जितना ध्यान दिया जाता है उसके अनुसार कम या अधिक समय लगता है । तब सब कुछ, सब कुछ प्रकट होता है... कोई भी चीज (कैसे कहा जाय?) सद्वस्तुके अर्थमें निरपेक्ष प्रतीत नहीं होती -- सद्वस्तु, जिसमें ठोस वास्तविकता हो --, शरीरकी अप्रिय चीजोंको छोड्कर कोई चीज ऐसी नहीं लगती; तब यह पता लगता है कि यह एक अपूर्णता है । अपूर्णता ही इसे इंद्रियोंके लिये गोचर बनाती है, अन्यथा यह ऐसा है (वही, अंदर जानेकी, भगवान्से चिपके रहनेकी मुद्रा) । और ''इस तरह'' आश्चर्यजनक 'शक्ति' होती है, यानी... उदाहरणके लिये, लोगोंके लिये एक बीमारी गायब हो जाती है (और वास्तव- मे, बाहरी रूपमें मेरे कुछ भी किये बिना, मेरे उससे कुछ बोले बिना, मैंने कुछ नहीं, कुछ भी नहीं किया - बीमारी ठीक हो गयी), एक दूसरे

 

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उदाहरणमें जहां व्यक्ति जाना चाहता है... यह अंत है । वह दूसरी ओरको झुका हुआ है और इस तरह एक ही साथ बहुत परिचित और... एकदम अपरिचित होता है ।

 

   मुझे याद है जब एक बार पिछले जन्मोंकी स्मृति, रातकी क्रियाओंकी स्मृति इतनी ठोस थी कि यह तथाकथित अदृश्य जगत् इतना ठोस था - अब... अब यह सब स्वप्नवत् है - सब कुछ - सब कुछ सद्स्तुको ढकनेवाले स्वप्नकी तरह है... सद्वस्तु... इंद्रियोंके लिये अज्ञात फिर भी गोचर । ऐसा लगता है कि मैं अनर्गल बोल रही हू ।

 

   जी नहीं, जी नहीं ।

 

क्योंकि इस चीजको व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

 

  उस दिन तुमने मुझसे पूछा था ( प्रश्न अभीतक लटक रहा है), तुमने पूछा था : जब मैं इस तरह चुपचाप और स्थिर होती द्रूं तो उस समय क्या चीज होती है?... यह केवल एक प्रयास है ( मै यह नहीं कह सकतीं कि यह अभीप्सा है, यह मी नहीं कह सकती कि यह प्रयास  -- यह वह चीज है जिसे अंगरेजीमें ' 'अर्ज' ' ( ललक) कहते हैं), सत्य जैसा कि वह है उसे न तो जाननेकी कोशिश करना, न समझनेकी कोशिश करना, यह सब विषयांतर है : होना -- होना -- होना. और तब... ( माताजीकी मधुरतापूर्ण मुस्कान) ।

 

( मौन)

 

   तो यह एकदम अजीब बात है : एक ही समय - एक ही समय --, एक-दूसरेके अंदर नहीं, एक-दूसरेके सान नहीं, बल्कि एक, और दूसरा, एक ही समय ( माताजी अपने दाहिने हाथकी उंगलियां बाएंकी उंगलियोंमें पिरोती हैं) : अद्भुत और भयंकर. । जीवन जैसा है, जैसा हम अपनी साधारण चेतनामें अनुभव करते हैं, जैसा वह लोगोंके लिये है, वह कुछ ऐसी चीज प्रतीत होता है.. ऐसी भयानक चीज कि तुम पूछोगे कि कोई उसमें एक मिनटके लिये मी कैसे जी सन्हता हुए; और दूसरा, साथ-ही- साथ. अद्भुत । 'प्रकाश' की, 'चेतना' की, 'शक्ति' की अद्भुत चीज -- साथ-ही-साथ, अद्भुत । ओह! ' शक्ति'! 'शक्ति'.. और यह किसी व्यक्तिकी शक्ति नहीं है ( माताजी अपने हाथकी त्वचाको पकड़ती है), यह कुछ ऐसी चीज... कुछ ऐसी चीज है जो सब कुछ है... । और उसे अभि- व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

 

   तो बिलकुल स्वभावतः, सबसे ज्यादा मजेदार बात है 'उस' को पाना । बिलकुल स्वभावतः, जब मेरे पास करनेको कुछ नहीं होता.. (भीतर प्रवेश करके प्रभुसे चिपके रहनेकी मुद्रा) ।

 

(लंबा मौन)

 

   केवल 'तू' -

 

   और यह बिलकुल स्पष्ट है कि सृष्टिका 'वही' लक्ष्य है, वह अद्भुत आनंद... 'तुझे' अनुभव करनेका आनंद ।

 

 (माताजी मुस्कानके साय. खतम करती हैं)

 

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